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 गेहूं की वैज्ञानिक खेती



गेहूँ की खेती के लिए समशीतोषण जलवायु की आवश्यकता होती है, इसकी खेती के लिए अनुकूल तापमान बुवाई के समय 20-25 डिग्री सेंटीग्रेट उपयुक्त माना जाता है, गेहूँ की खेती मुख्यत सिंचाई पर आधारित होती है गेहूँ की खेती के लिए दोमट भूमि सर्वोत्तम मानी जाती है, लेकिन इसकी खेती बलुई दोमट,भारी दोमट, मटियार तथा मार एवं कावर भूमि में की जा सकती है। साधनों की उपलब्धता के आधार पर हर तरह की भूमि में गेहूँ की खेती की जा सकती है।

खेत  की तैयारी (Farm preparation)

अच्छे अंकुरण के लिये एक बेहतर भुरभुरी मिट्टी की आवश्यकता होती है. समय पर जुताई  खेत में नमी संरक्षण के लिए भी आवश्यक है. वास्तव में खेत की तैयारी करते समय हमारा लक्ष्य यह होना चाहिए कि बोआई के समय खेत खरपतवार मुक्त  हो, भूमि में पर्याप्त नमी हो तथा मिट्टी इतनी भुरभुरी हो जाये ताकि बुवाई आसानी से उचित गहराई तथा समान दूरी पर की जा सके.


बीज शोधन(Seed treatment)

गेहूँकि बीजदर लाइन से बुवाई करने पर 100 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा मोटा दाना 125 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर तथा छिड़काव से बुवाई कि दशा से 125 कि०ग्रा० सामान्य तथा मोटा दाना 150 कि०ग्रा० प्रति हैक्टर कि दर से प्रयोग करते हैं, बुवाई के पहले बीजशोधन अवश्य करना चाहिए बीजशोधन के लिए बाविस्टिन, काबेन्डाजिम कि 2 ग्राम मात्रा प्रति कि०ग्रा० कि दर से बीज शोधित करके ही बीज की बुवाई करनी चाहिए।

फसल बुवाई की विधियाँ

गेहूँ की बुवाई समय से एवं पर्याप्त नमी पर करनी चाहिए अंन्यथा उपज में कमी हो जाती है। जैसे-जैसे बुवाई में बिलम्ब होता है वैसे-वैसे पैदावार में गिरावट आती जाती है, गेहूँ की बुवाई सीड्रिल से करनी चाहिए तथा गेहूँ की बुवाई हमेशा लाइन में करें। सयुंक्त प्रजातियों की बुवाई अक्तूबर के प्रथम पक्ष से द्वितीय पक्ष तक उपयुक्त नमी में बुवाई करनी चाहिए, अब आता है सिंचित दशा इसमे की चार पानी देने वाली हैं समय से अर्थात 15-25 नवम्बर, सिंचित दशा में ही तीन पानी वाली प्रजातियों के लिए 15 नवंबर से 10 दिसंबर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए और सिंचित दशा में जो देर से बुवाई करने वाली प्रजातियाँ हैं वो 15-25 दिसम्बर तक उचित नमी में बुवाई करनी चाहिए, उसरीली भूमि में जिन प्रजातियों की बुवाई की जाती है वे 15 अक्टूबर के आस पास उचित नमी में बुवाई अवश्य कर देना चाहिए, अब आता है किस विधि से बुवाई करें गेहूँ की बुवाई देशी हल के पीछे लाइनों में करनी चाहिए या फर्टीसीड्रिल से भूमि में उचित नमी पर करना लाभदायक है, पंतनगर सीड्रिल बीज व खाद सीड्रिल से बुवाई करना अत्यंत लाभदायक है।

उर्वरकों का प्रयोग

किसान भाइयों उर्वरकों का प्रयोग मृदा परीक्षण के आधार पर करना चाहिए, गेहूँ की अच्छी उपज के लिए खरीफ की फसल के बाद भूमि में 150 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश प्रति हैक्टर तथा देर से बुवाई करने पर 80 कि०ग्रा० नत्रजन, 60 कि०ग्रा० फास्फोरस, तथा 40 कि०ग्रा० पोटाश, अच्छी उपज के लिए 60 कुंतल प्रति हैक्टर सड़ी गोबर की खाद का प्रयोग करना चाहिए। गोबर की खाद एवं आधी नत्रजन की मात्रा तथा पोटाश की पूरी मात्रा खेत की तैयारी के समय आखिरी जुताई में या बुवाई के समय खाद का प्रयोग करना चाहिए, शेष नत्रजन की आधी मात्रा पहली सिंचाई पर तथा बची शेष मात्रा दूसरी सिंचाई पर प्रयोग करनी चाहिए।

 गेहूं की नई विकसित सभी किस्में

 गेहूं प्रमुख फसल हैं इसकी खेती देश के सबसे अधिक क्षेत्र में की जाती हैं | गेहूं की उत्पादकता बढ़ाने के लिए देश में कई प्रयास किये जा रहे हैं जिससे अभी जितने भी क्षेत्र में गेहूं की खेती हो रही है उतने में ही उससे अधिक उपज प्राप्त की जा सके | इसके लिए भारतीय कृषि वैज्ञानिकों द्वारा बहुत सी नई प्रणालियाँ एवं नई किस्में विकसित की गई हैं | गेहूं की नई विकसित किस्में अलग अलग क्षेत्रों में उनके वातावरण के अनुरूप तैयार की जाती हैं | किसान समाधान गेहूं की नई विकसित किस्में अलग- अलग राज्यों के लिए क्या है यह बताएगा परन्तु आप अपने जिले में एवं आपके खेत के लिए कोन सी किस्म सबसे अच्छी रहेगी इसका पता आप कृषि विज्ञान केंद्र से कर सकते हैं | साथ ही आप अपने खेत की मिट्टी की जांच करवा ले ताकि आपको कम लागत में अधिक उपज प्राप्त हो सके |गेहूं की खेती में किस्मों का चुनाव एक महत्वपूर्ण निर्णय है जो यह निर्धारित करता है कि उपज कितनी होगी। हमेशा नई, रोगरोधी व उच्च उत्पादन क्षमता वाली किस्मों का चुनाव करना चाहिए। सिंचित व समय से बीजाई के लिए डीबीडब्ल्यू 303, डब्ल्यूएच 1270, पीबीडब्ल्यू 723 और सिंचित व देर से बुवाई के लिए डीबीडब्ल्यू 173, डीबीडब्ल्यू 71, पीबीडब्ल्यू 771, डब्ल्यूएच 1124, डीबीडब्ल्यू 90 व एचडी 3059 की बुवाई कर सकते हैं। जबकि अधिक देरी से बुवाई के लिए एचडी 3298 किस्म की पहचान की गई है। सीमित सिंचाई व समय से बुवाई के लिए डब्ल्यूएच 1142 किस्म को अपनाया जा सकता है।

गेहूं की जेडब्ल्यू (एमपी) 3288 किस्म
यह किस्म 110 दिन में फसल तैयार कर देती है, जिससे लगभग 55 से 65 क्विंटल तक पैदावार प्राप्त हो सकती है. सामान्य तौर पर गेहूं की फसल को पकने के लिए 120 दिन लगते हैं. मगर जेडब्ल्यू (एमपी) 3288 किस्म में एक खासियत है कि इस किस्म की फसल तेज हवा-आंधी आने पर भी झुकती नहीं है.

गेहूं  की एमपी 3382किस्म

इसके अलावा गेहूं में मुख्य रूप से पीला रतुआ, गेरूआ रोग और काला कंडुआ रोग का प्रकोप हो जाता है. यह रोग फफूंद के रूप में फैलता है. जब तापमान में वृद्धि होती है, तो गेहूं को पीला रतुआ रोग लग जाता है, जिससे गेहूं की उपज काफी प्रभावित होती है. यह रोग कृषि वैज्ञानिकों के लिए एक चुनौती बन गया है, इसलिए कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर ने गेहूं की एमपी 3382 किस्म विकसित की है, जो 110 दिन में फसल को पककर तैयार हो जाती है. यह एक तापमान रोधी किस्म मानी गई है.अगर कोई किसान इन किस्म को खरीदना चाहते हैं, तो वह जवाहरलाल नेहरू कृषि विश्वविद्यालय जबलपुर या अपने नजदीकी कृषि विज्ञान केंद्र पर पहुंचकर बीज ले सकते हैं.

खरपतवार प्रबंधन

गेहूं की फसल में संकरी पत्ती (मंडूसी/कनकी/गुल्ली डंडा, जंगली जई, लोमड़ घास) वाले खरपतवारों के नियंत्रण के लिए क्लोडिनाफॉप 15 डब्ल्यूपी 160 ग्राम या फिनोक्साडेन 5 ईसी 400 मिलीलीटर या फिनोक्साप्रॉप 10 ईसी 400 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर प्रयोग करें। यदि चौड़ी पत्ती (बथुआ, खरबाथु, जंगली पालक, मैना, मैथा, सोंचल/मालवा, मकोय, हिरनखुरी, कंडाई, कृष्णनील, प्याजी, चटरी-मटरी) वाले खरपतवारों की समस्या हो तो मेटसल्फ्यूरॉन 20 डब्ल्यूपी 8 ग्राम या कारफेन्ट्राजोन 40 डब्ल्यूडीजी 20 ग्राम या 2,4 डी 38 ईसी 500 मिलीलीटर प्रति एकड़ की दर से प्रयोग करें। सभी खरपतवारनाशी/शाकनाशी का छिड़काव बीजाई के 30-35 दिन बाद 120-150 लीटर पानी में घोल बनाकर फ्लैट फैन नोजल से करें। मिश्रित खरपतवारों की समस्या होने पर संकरी पत्ती शाकनाशी के प्रयोग उपरान्त चौड़ी पत्ती शाकनाशी का छिड़काव करें। बहुशाकनाशी प्रतिरोधी कनकी के नियंत्रण के लिए पायरोक्सासल्फोन 85 डब्ल्यूडीजी 60 ग्राम/एकड़ को बीजाई के तुरन्त बाद प्रयोग करें।

गेहूं की खेती में सिंचाई प्रबंधन है जरूरी

अधिक उपज के लिए गेहूं की फसल को पांच-छह सिंचाई की जरूरत होती है। पानी की उपलब्धता, मिट्टी के प्रकार और पौधों की आवश्यकता के हिसाब से सिंचाई करनी चाहिए। गेहूं की फसल के जीवन चक्र में तीन अवस्थाएं जैसे चंदेरी जड़े निकलना (21 दिन), पहली गांठ बनना (65 दिन) और दाना बनना (85 दिन) ऐसी हैं, जिन पर सिंचाई करना अतिआवश्यक है। यदि सिचाई के लिए जल पर्याप्त मात्रा में उपलब्ध हो तो पहली सिंचाई 21 दिन पर इसके बाद 20 दिन के अंतराल पर अन्य पांच सिंचाई करें। नई सिंचाई तकनीकों जैसे फव्वारा विधि या टपका विधि भी गेहूं की खेती के लिए काफी उपयुक्त है। कम पानी क्षेत्रों में इनका प्रयोग बहुत पहले से होता आ रहा है। लेकिन जल की बाहुलता वाले क्षेत्रों में भी इन तकनीकों को अपनाकर जल का संचय किया जा सकता है और अच्छी उपज ली जा सकती है। सिंचाई की इन तकनीकों पर केन्द्र व राज्य सरकारों द्वारा सब्सिडी के रूप में अनुदान भी दिया जा रहा है। किसान भाईयों को इन योजनाओं का लाभ लेकर सिंचाई जल प्रबंधन के राष्ट्रीय दायित्व का भी निर्वहन करना चाहिए।

गेहूं के रोगों की पहचान एवं नियंत्रण

 पीला रतुआ वर्ष 2011 में देश के कई हिस्सों में पीला रतुआ से प्रभावित गेहूं की फसल को देखा गया। यह 'पक्सीनिया स्ट्राईफारमिस' नामक कवकजनित रोग है।

इस रोग में गेहूं की पत्तियों की ऊपरी सतह पर पीले रंग की धारियां दिखाई देने लगती हैं। ये धीरे-धीरे पूरी पत्तियों को अपने संक्रमण से पीला कर देती हैं। इसके बाद पीले रंग का पाउडर जमीन पर बिखरा हुआ स्पष्ट दिखाई देने लगता है। इस रोग का पीले रंग की धारियों के रूप में दिखाई देना ही इसका प्रमुख लक्षण है। इस कारण इसे 'धारीदार रतुआ' के नाम से भी जाना जाता है।

  • इस रोग के संक्रमण से फसल की वृद्धि रुक जाती है, खासकर उन परिस्थितियों में, जब यह रोग कल्ले निकलने की अवस्था में या उससे पहले आ जाए। तापमान बढ़ने के साथ-साथ पत्तियों पर दिखाई देने वाली पीली धारियां काले रंग में बदल जाती हैं और अंत में सूखकर मुरझा जाती हैं।
  • यह रोग तापमान बढ़ने पर कम हो जाता है। इसी कारण मध्य तथा दक्षिणी क्षेत्रों में यह रोग अधिक तापमान होने के कारण कोई नुकसान नहीं पहुंचाता। 
  • यह रोग प्रायः उत्तर हिमालय की पहाड़ियों से उत्तरी मैदानी क्षेत्र में दिखाई पड़ता है, जैसे-पंजाब, हरियाणा, जम्मू तथा हिमालय का मैदानी क्षेत्र, उत्तरी राजस्थान, पश्चिमी उत्तर प्रदेश एवं उत्तराखंड का मैदानी भाग इत्यादि।

2   
पर्ण झुलसा



यह रोग मुख्यतः स्पॉट ब्लाच रोगजनक-'बाइपोलेरिस सोरोकिनियाना' तथा नेट ब्लाच रोगजनक-'पाईरेनोफोरा टेरेस' नामक कवक से होता है। यह सम्पूर्ण भारत में पाया जाता है। 

इसके लक्षण पौध के सभी भागों में देखे जा सकते हैं, परंतु पत्तियों पर संक्रमण सर्व प्रमुख है। इससे पत्तियां झुलसी दिखाई देती हैं। इस कारण यह रोग 'पर्ण झुलसा' के नाम से भी जाना जाता है। 

प्रारंभ में 'बाईपोलेरिस सोरोकिनियाना' के संक्रमण से स्पॉट ब्लॉच के लक्षण भूरे रंग की नाव के आकार के छोटे धब्बों के रूप में उभरते हैं। ये विकसित होकर पत्तियों को संपूर्ण रूप से या कुछ भागों को झुलसा देते हैं। इससे पत्तियों के ऊतक नष्ट हो जाते हैं और पत्तियों का हरा रंग झुलसा हुआ प्रतीत होता है। इसी प्रकार 'पाइरेनोफोरा टेरेस' के संक्रमण से पत्तियों पर भूरे रंग के छोटे धब्बे शिराओं के साथ जाल के आकार में होते हैं।

  • इस प्रकार पत्तियों में प्रकाश-संश्लेषण की दर काफी प्रभावित होती है।
  • हरी पत्तियां समय से पहले सूख जाती हैं तथा बीज बदरंग, हल्के तथा आकार में सिकुड़े से बन
  • ऐसा अनुमान लगाया गया है कि इस रोग से संक्रमित फसल की उपज में 45 प्रतिशत तक की हानि हो जाती है।                          

3  सिरियल सिस्ट निमेटोड 




गेहूं में यह रोग 'हेटरोडेरा एवेनी' नामक सूत्राकृमि से पैदा होता है। इस रोग का प्रकोप राजस्थान के कई जिलों में देखा गया था जैसे-जयपुर, अलवर, अजमेर, उदयपुर, एवं भीलवाड़ा। इसके साथ ही कुछ पड़ोसी राज्यों हरियाणा, पंजाब, हिमाचल आदि में भी इसका संक्रमण दिखाई पड़ता है

रोग लक्षण


  • इस रोग के प्रारंभिक लक्षण फसल बुआई के एक महीने के भीतर ही देखे जा सकते हैं। जनवरी के अंत तक फसल पर यह लक्षण पूर्णतः प्रकट हो जाते हैं।
  • खेत में पौधों पर रोग छोटे-छोटे बिखरे हुए खंडों में दिखाई देते हैं तथा इन खंडों का व्यास 2-3 फुट से अधिक नहीं होता है। इन खंडों में रोगी पौधे 'बौने' एवं पीले दिखाई देते हैं। ये ऊंचाई में लगभग 1-2 फुट से अधिक नहीं बढ़ पाते हैं।
  • पौधों में बालियां नहीं आती हैं और यदि बालियां बनती भी हैं तो वे समय से पहले ही निकल आती हैं तथा उनमें दाने प्रायः बनते ही नहीं हैं।
  • प्रभावित पौधे की जड़ों पर सामान्यतः 15 से 20 की संखया में पुटि्‌टयां मिल सकती हैं। ऐसे पौधों को भूमिसे आसानी से खींचकर उखाड़ा जा सकता है।
  • हल्की मृदा में इस रोग का प्रकोप अधिक होता है। इस रोग से गेहूं की अपेक्षा जौ की फसल को अधिक हानि पहुंचती है। यदि संक्रमण गंभीर हो तो पूरी फसल चौपट हो जाती है। इस सूत्राकृमि की उपस्थिति का उल्लेख विश्व के अनेक देशों जैसे अमेरिका, ऑस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड, कनाडा, इजराइल, डेनमार्क, स्वीडन, श्जापान, उत्तरी एवं दक्षिणी अप्रफीका तथा पाकिस्तान में भी देखने को मिला है।
4 चूर्णिल आसिता (Loose smut)
चूर्णिल आसिता (पाउडरी मिल्ड्यू) के विपरीत, परत पूरी तरह पत्ती की निचली तरफ नज़र आती है और इसकी वृद्धि मुख्य शिराओं तक सीमित रहती है। खास बात यह कि इसे आसानी से हटाया नहीं जा सकता है।

रोग लक्षण



  • इस रोग के लिए ठंडे क्षेत्र एवं ठंडे मौसम जहां वातावरण का तापमान 150 से 200 सेल्सियस के मध्य रहता है, अनुकूल स्थिति है।
  • प्रारंभ में इस रोग के लक्षण पत्तियों की ऊपरी सतह पर गेहूं के आटे के समान सफेद धब्बे के रूप में बिखरे दिखाई देते हैं। बाद में उपयुक्त स्थितियां पाकर बालियों तक भी पहुंच जाते हैं।
  • संक्रमण मध्य फरवरी से मध्य मार्च तक देखा जा सकता है।
  • मार्च के अंतिम दिनों में तापमान बढ़ने के साथ इन सफेद भूरे धब्बों में सूई की नोंक के आकार के गहरे भूरे 'क्लिस्टोथिसिया' बनने लगते हैं। इससे इस रोग का फैलाव रुक जाता है।
  • हानि
  • इस रोग से संक्रमित पत्तियां पीली एवं फिर भूरी पड़कर सूख जाती हैं।
  • रोगी पौधे में केे्ल्ले कम होते हैं तथा दाने हल्के एवं सिकुडे़ हुए बनते हैं।
  • फसल की प्रारंभिक अवस्था में यदि यह रोग प्रभावी हो जाए तो उत्पादन में भारी कमी आ जाती है।

भारत में गेहूं की फसल में 50 से भी अधिक छोटे-बड़े रोग तथा हानिकारक कीट लगते हैं। आई.पी.एम. (समेकित नाशीजीव प्रबंधन) को अपनाने से गेहूं में कुछ राज्यों को छोड़कर पीला रतुआ के अलावा कोई महामारी नहीं आ पाई है। कुछ पड़ोसी देशों में रतुआ की महामारी ने कापफी नुकसान पहुंचाया है। इस प्रकार गेहूं में लगने वाले मुख्य राेग खासकर पीला रतुआ से बचाव के लिए सही दिशा-निर्देश एवं दवा का प्रयोग समय की कसौटी पर खरा साबित हुआ है। है इससे देश में खाद्यान्न उत्पादन में बढ़ोतरी होगी।

कटाई और भंडारण का सही तरीका

जब गेहूं के दाने पककर सख्त हो जाएं और नमी की मात्रा 20 प्रतिशत से कम हो जाए तो कम्बाइन हार्वेस्टर से कटाई, मढ़ाई एवं ओसाई एक साथ की जा सकती है। अत्यधिक उपज देने वाली नवीनतम् प्रजातियों के प्रयोग से लगभग 70-80 कुंतल/हैक्टर उपज प्राप्त की जा सकती है। भंडारण से पहले दानों को अच्छी तरह से सुखा लें ताकि औसतन नमी 10-12 प्रतिशत के सुरक्षित स्तर पर आ जाए। टूटे एवं कटे-फटे दानों को अलग कर देने से भी मध्यम् कीटों के नुकसान से बचा जा सकता है। अनाज भंडारण के लिए जी आई शीट के बने बिन्स (साइलो एवं कोठिला) का प्रयोग करना चाहिए तथा कीड़ों से बचाव के लिए लगभग 10 कुंतल अनाज में एक टिकिया एल्यूमिनियम फाॅस्फाईड की रखें। 


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